लेखक:राकेश मिश्रा
अगर कोई मुझसे पूछे कि संवेदना का समाजशास्त्र क्या होता है? इसके लिए कौन सी किताब पढ़ी जाये? किस कोर्स को किया जाये ताकि नौकरी मिल सके तो मेरा जवाब होगा कि आप जो कर रहे हैं वही करें| क्योंकि कोर्स या किताबें किसी विषय को बारीकी से बता या समझा जरुर सकते हैं| वे आपकी संवेदनाओं को भी सम्भाल सकें ये मुमकिन नहीं। उसके लिए किताब की बजाए किताब के लेखक को पढ़ना होगा। जाहिर है कि संवेदना एक दो तरफ़ा संवाद की परिघटना है| इसके लिए ये भी तय करना जरुरी है कि इस परिघटना के लिए संवाद का तात्पर्य थोड़ा व्यापक अर्थों में कैसे लिया जाये। जब हम किसी माहौल से गुजर रहे होते हैं या रह रहे होते हैं तो हमारे चारों ओर अनेकों कारक होते हैं, जिनसे हमारे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष अनुभूतियाँ होती हैं| किसी माहौल को महसूस करने का काम देखने, सुनने, समझने, पढ़ने, छूने जैसे बहुत से तरीकों से होता है| माहौल में अनेकों चीजों के बीच कुछ कारक ऐसे होते हैं, जो हमारे ऊपर ज्यादा प्रभाव डालते हैं| कुछ सामान्य लगते हैं और कुछ ऐसे भी तत्त्व होते हैं, जो हमारी नज़र में नहीं होते हैं| कुछ मनोविज्ञानी इसको इस तरह कहते हैं कि हम बहुधा वही देखते या सुनते हैं जो हम देखना या सुनना चाहते हैं|
अब ये सवाल भी कम महत्वपूर्ण नहीं कि ये कैसे तय होता है कि हम क्या देखना या सुनना चाहते हैं, ये कैसे तय होता है कि हमारे चारों ओर मौजूद अनेकों चीजों या लोगों में से कुछ विशेष चीजों या लोगों की अहमियत कैसे तय करें? हमे कैसे हजारों चीजों के बीच में सिर्फ कुछ ही चीजें अच्छी लगती हैं और हर एक माहौल में हम सिर्फ उन्ही चीजों को खोज लेते हैं? यह दर्जनों किताबों के बीच सिर्फ उन पुस्तकों को खोजने जैसा है जो हमारे प्रिय विषय की हैं| इसको यूँ समझिये ऑटोमोबाइल इंजीनियरिंग और बेकरी से सम्बंधित पुस्तकों में से किसी एक का चयन करना हमारे व्यक्तिगत विवेक पर निर्भर करता है| इसको इस तरह से कहा जा सकता है कि कि हमे जो घटनाए चीजें या विचार सबसे ज्यादा प्रभावित करते हैं उसी से हम जिंदगी के फैसले लेते हैं। यहीं पर सवाल खड़ा होता है कि दूसरी चीजें,किताबें, व्यक्ति,विषय या विचार हमारे लिए अहमियत क्यों नहीं रखते? बचपन में कुछ अच्छे लोगों के बारे में जान के हम उनके अनुरूप चलने की प्रेरणा लेते हैं| किताबों में महापुरुषों की जानकारी होती है तो हम उसी के अनुसार अपना आदर्श देख रहे होते हैं और मुझे लगता है कि यहीं पे गड़बड़ी शुरू होने लगती है| हम किताबों में पढ़ते हैं. दूसरे माध्यमों में देखते तो हैं सत्य अहिंसा, क्षमा, दया, प्रेम जैसे वैचारिक तत्त्व लेकिन सांसारिक वास्तविकता में इनका निरादर होना भी हमे नज़र आता है| यहीं पर वैचारिक द्वंद शुरू होता है| हम में से कई लोग एक ऐसे मुकाम पर भी पहुँच सकते हैं जहाँ हमे दो व्यावहारिक परिस्थितियों में से एक का चयन करना हो| ऐसे में यदि सही और आसान में से किसी एक का चुनाव करना पड़े तो हो सकता है कि हम आसान वाले विकल्प को प्राथमिकता दें, लेकिन हमारी चेतना हमे सही रास्ते पर चलने को प्रेरित जरुर करती है| ये अलग बात है कि हम दिल की सुन के उसे अनसुना कर दें| इसी स्व से संवाद की प्रक्रिया से हमारी जीवनचर्या और जीवन उद्देश्य निर्धारित होते हैं| जैसा कि ऊपर कहा गया है कि हमारी चेतना को प्रभावित करने वाले अनेकों कारकों में से बहुत कम ही ऐसे होते हैं जिनसे हमारा दो तरफ़ा संवाद होता है| जिनके साथ संवाद नहीं होता है उसके प्रति हम आग्रही तक हो सकते हैं अर्थात बिना ठीक से जाने ही मन में विचार बना सकते हैं| जैसे जैसे हम उस चीज को ज्यादा बेहतरी से जान लेते हैं वो हमारे लिए महत्वपूर्ण हो जाती है और हम उससे खुद को जुड़ा हुआ महसूस करने लगते हैं| यदि उससे हमे कोई तात्कालिक या दीर्घकालिक फायदे नज़र आते हैं तो हम उसको अपने जीवन लक्ष्यों में भी उसको शामिल कर लेते हैं| अपनी कार्य योजना बना के लोगों को उसमे शामिल करते हैं| यहाँ भी ये महत्वपूर्ण हो जाता है कि जिन लोगों का हमारी योजनाओं में कोई स्थान नहीं है उनके प्रति हमारा सम्बन्ध क्या हो| ये आज के भारत की सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक है| ज्यादातर लोग निजी महत्वाकांक्षाओं के अनुरूप योजनाएं बनाते हैं| वे अपनी योजना में बहुधा समय और दूसरे लोगों और चीजों को नज़र अंदाज़ कर देते हैं| वो भी इस कदर कि यदि किसी की उसमे नकारात्मक प्रतिक्रिया मिलती है तो वे उसे उसे वैचारिक आक्रमण के तौर पर ही लेते हैं|
इस वैचारिक आक्रमण में प्रति आलोचना करके अपना बचाव करते हैं| लोकतंत्र के राष्ट्रीय स्तर पर आलोचना प्रति आलोचना की इसी प्रक्रिया की पुनरावृत्ति जन समूहों और राजनैतिक दलों में नज़र आती है| दलीय राजनीति वाले अपने उद्देश्यों में अपने समूह विशेष के हित के लिए सड़क से संसद तक जूझते मिलते हैं| वे अक्सर अपनी समझदारी साबित करने के फेर में भूल जाते हैं कि यदि हम इस आलोचना-प्रति आलोचना में ही अधिकांश समय बितायेंगे तो रचना के लिए अपनी प्रतिबद्धता को धरातल पर कैसे उतारेंगे| इसी लिए स्वयं, दूसरों और प्रकृति से जुड़े विषय और विचार हम लोगों के लिए महत्वपूर्ण होने चाहिए। ताकि हम लोगों के प्रति एक समावेशी नजरिया बना सकें। दूसरे लोगों से अपने जुड़ाव पर यदि नज़र डालें तो एक अनजान से हमारा सम्बन्ध अगर कुछ न भी हो
तो भी भावनात्मक तो जरुर होता है| इसको कुछ लोग दर्द का रिश्ता भी कहते हैं| ये अलग बात है कि हम लोगों में उसके अलग अलग स्तर और आयाम होते हैं| कुल मिला के हम लोग अपनी समझ और हैसियत भर संवेदना जरुर रखते हैं| बस जरुरत इस बात की है कि
दूसरों को नज़र अंदाज़ न किया जाये। जरुरी है कि हम समदर्शी बनें।
जहाँ तक राज्य और व्यवस्था का सवाल है उसकी संवेदनशीलता का पैमाना जनहितों और शांति से लगाया जा सकता है| उसी संवेदना का एक स्वरुप न्याय भी होता है| न्याय की समदर्शी प्रकृति राज्य व्यवस्था में आम लोगों का विश्वास बहाल करती है| इसे यूँ भी कह सकते हैं कि राज्य कि समदर्शिता ही उसे न्याय करने में सक्षम बनाती है|
राज्य की व्यवस्था के लिए राजनीतिक दर्शनों में राज्य के लिए संकेतक निर्धारित करने की कवायद जारी है, समाज में इस प्रकार के संकेत, विकास, स्थायित्व, जनहित, क्रांति इत्यादि नामों से प्रचलित हैं| मनुष्य की संवेदना का दर्पण है साहित्य| साहित्य की अभिव्यक्ति को इंसानियत की जरुरत है और इंसानियत को साहित्यकारों की मानवीय
संवेदना की| इंसानियत और साहित्य को आधार बना के रचनाएं की जाएं तो सब लोगों का भला होगा|
इतिहास गवाह है कि विचारों के आदान प्रदान से कुछ समरसता भी बनी लेकिन कतिपय तत्वों के हस्तक्षेप से साहित्य भी आधार भूत तत्वों और प्राकृतिक अवस्थापनाओं के अवमूल्यन से नहीं बच सका| राज्य, समाज, मानवीय व्यवहार, व्यवस्था, विकास इत्यादि के इर्द गिर्द घूमते साहित्य को तार्किकता की कसौटी पर अवैज्ञानिक होने के आरोप झेलने पड़ते हैं| इस अवस्था में अपने बचाव के लिए साहित्य वैज्ञानिकता पर असंवेदनशील होने का आरोप मढ़ता नज़र आता है|
दोनों ही परिस्थितियों में गम्भीर द्वंद सतत जारी है| ऐसे में गम्भीर प्रश्न ये है कि भाषा और परिभाषा के के मतभेद अगर देशों में अंतर पैदा कर सकते हैं तो बहस समाधान करने की होनी चाहिए या उसमे अपनी रियासत बनाने की| मगर फिलहाल तो ऐसा नज़र आता है कि यदि आलोचना प्रति आलोचना खत्म हो जाये तो देश राजनीति बेरोजगारहो जायेगी।
दुर्भाग्यवश भारतीय लोकतंत्र में जनावेशी राजनीति तो जारी है समावेशी राजनीति के लिए कोई स्थान नज़र नहीं आता| अधीरता इस कदर है कि राजसत्ता
के भोग मात्र को जीवन लक्ष्य बना लेना राष्ट्रवाद हो गया है| और साहित्य का बांझपन कुछ इस कदर है कि वह विकास की परिभाषा देने के लिए अपने विचार पैदा करने में नाकाम है| वह अपने अस्तित्व की सार्थकता या तो राजसत्ता का चारण हो के साबित करती है या विद्रोही बन के| दोनों ही परिस्थितियों में संघर्ष अनवरत जारी है| दौर ऐसा है कि विकास यानि रचना का तथाकथित ठेकेदार विज्ञानं है| विज्ञानं की हैसियत ये हैं कि संवेदना की उपेक्षा करते हुए वह भी साहित्य से ही संघर्ष करता मिलता है| स्वतंत्रता परिभाषित करने के लिए निरपेक्षता जरुरत है|
मगरस्वतंत्रता की तलाश में भटक रहे विचारों की मौलिकता संदेहास्पद है| देवी प्रसाशुक्ल राही के शब्दों में "मेधा महलों की रखैल हो, प्रतिभा राजनीति की दासी,ऐसे जीना पड़ा अगर तो दोस्त लगा लूंगा मै फांसी"। इस स्वतंत्रता के लिए जरुरी हो जाता है कि व्यक्ति विशेष हो या राज व्यवस्था मानवीय संवेदना के साथ ईमानदारीबरते| जरुरी है कि हम पशु पक्षी और वनस्पतियों की संवेदना की भी क़द्र करे|जाहिर है कि मूल संघर्षों का समाधान संवेदना में है| वक़्त की जरुरत है किसं का दर्शन, संवेदना के समाज शास्त्र, संवेदना का अर्थशास्त्र गढ़ा जाये और संवेदना की राजनीति हो| एक कहावत है कि नया मुल्ला प्याज ज्यादा खाता है ऐसेमें संवेदना की तार्किकता गढ़ने में ज्यादा सावधान रहना होगा ताकि आपके व्यक्तिगत संकल्प ग्लोबलिस्टों के स्वार्थों की भेंट न चढ़ जाएँ।
अयं निजः परोवेति गणना लघुचेतसाम्ए
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम
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