सोमवार:गंगा किनारे शिवलयो के दर्शन, कही अश्वथामा करते है पहला पूजन तो कही स्वम्भू है शिव! हर हर महादेव
आनन्देश्वर मन्दिर परमट कानपुर मे बहुत प्रसिद्ध शिव मंदिर है, जो की जुना अखाणा से सम्बंधित है।
इस मंदिर का इतिहास महाभारत काल के पहले का है। गंगा किनारे करीब तीन एकड़ में बना है यह मंदिर। प्राचीन समय में यहां पर एक विशाल टीला हुआ करता था। जिसके आस-पास उस समय के एक राजा की कई गाएं चरने के लिए आती थी। उन्ही गायों में से एक गाय थी आनन्दी गाय। जो उस टीले पर जाकर बैठती थी और जब वहां से चलने लगाती थी तब वह अपना सारा दूध उस टीले पर ही देती थी।
जब राजा को इसके विषय में पता चला तो वह कई दिनों तक इसे देखता रहा, एकदिन राजा ने गाय के खुद ब खुद दूध बहा देने का रहस्य जानने के लिए टीले की खुदाई करवाई। कहते है दो दिन की खुदाई के बाद उस टीले से एक शिवलिंग निकला, भोलेनाथ का शिवलिंग देख राजा ने उस शिवलिंग की स्थापना वहा करवाकर रुद्राभिषेक करवाया। - वहा शिवलिंग मिलने के बाद उस गाय ने भी वहां अपना दूध बहाना बंद कर दिया। ऐसे में उस गाय के नाम पर यहां मिले भोलेनाथ का नाम आनंदेश्वर रखा गया।
वनखंडेश्वर मंदिर
पी रोड स्थित वनखंडेश्वर मंदिर शहर के साथ आस-पास के जिलों में प्रमुख शिवालयों के रूप में भक्तों की आस्था का केंद्र रहता है।
वनखंडेश्वर मंदिर का इतिहास लगभग 250 वर्ष पुराना है। मंदिर में स्थापित भगवान का शिवलिंग खोदाई के दौरान प्राचीन काल में मिला था। भक्तों में मान्यता है कि जिस स्थान पर वर्तमान में मंदिर है, वहां प्राचीन काल में घना जंगल था। यहां एक गाय आकर प्रतिदिन अपना दूध गिराती थी। इसके चलते इस स्थान पर खोदाई की गई, जिसमें शिवलिंग मिला। तब से इसे वनखंडेश्वर बाबा के नाम से पूजा जाने लगा। भक्त विमल तिवारी बताते हैं कि वनखंडेश्वर मंदिर शहर का इकलौता महादेव मंदिर है जहां शिवलिंग कक्ष के चारों ओर द्वार बने हैं। इससे आरती के दौरान हर द्वार से भक्त महादेव का दर्शन करते हैं
जागेश्वर महादेव
जागेश्वर महादेव मंदिर का इतिहास लगभग 300 वर्ष पुराना है। मंदिर अर्द्धगोलाकर शैली में बना है। भक्तों के मुताबिक, प्राचीन मंदिर त्र्यंबकेश्वर धाम की तर्ज पर बना है। मंदिर निर्माण के समय मंदिर के पीछे लगे पीपल के विशाल पेड़ की जड़ काटी जा रही थी तो नाग और नागिन के जोड़े के दर्शन हुए थे, जो पेड़ को कटने नहीं दे रहे थे। इसके बाद पेड़ को सुरक्षित कर मंदिर का निर्माण अर्द्धगोलाकार शैली में किया गया। मंदिर में 300 वर्ष पुराना प्राचीन कुंआ है, जिसका आज भी उपयोग हो रहा है।
मंदिर की विशेषता : प्राचीन मंदिर में महादेव के दर्शन को आने वाले भक्तों को हर पहर में शिवलिंग का रंग बदला हुआ दिखता है। भक्त इसे महादेव का चमत्कार मानते हैं। शिवलिंग सुबह के समय स्लेटी रंग, दोपहर के समय भूरा रंग और रात में काले रंग का दिखता है। शिवलिंग के ऊपर प्राचीन काल में मल्लाह द्वारा खोदे जाने के कारण खुरपी का निशाना भी दिखता है।
खेरेश्वर मंदिर
शिवराजपुर से गंगा की ओर ढाई किलोमीटर दूर स्थित खेरेश्वर मंदिर करीब सात सौ वर्ष प्रचीन है। मान्यता है कि यहां स्थापित शिवलिंग के दर्शन के लिए अजर अमर अश्वस्थामा नित्य प्रात: काल प्रथम पूजन करते हैं। आज भी सुबह मंदिर के कपाट खुलने पर विशेष पुष्प व जल चढ़ा हुआ मिलता है। कहा जाता है कि प्रचीन काल में चरवाहों की गायों का दूध इस स्थान पर आने पर स्वयं निकलने लगता था। जिस पर ग्रामीणों द्वारा खुदाई करने पर शिवलिंग निकला। यह स्थान छतरपुर गांव के खेरे पर स्थित होने के कारण खेरेश्वर कहा गया।इस पौराणिक मंदिर में शिवलिंग के दर्शन से लोगों की मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं। यहां पास में गंगा नदी किनारे सरैया घाट है जिस पर स्नान करके लोग गंगाजल शिवलिंग पर चढ़ाते हैं। कानपुर, उन्नाव, कानपुर देहात, कन्नौज समेत कई दूर गामी जिलों से भक्त दर्शन के लिए आते हैं।
खेरेपति
मान्यता है कि 200 साल पहले दैत्य गुरु शुकराचार्य ने अपनी बेटी दैव्यानी की शादी जाजमऊ के राजा आदित्य के साथ की थी। एक दिन बेटी से मिलने के लिए शुकराचार्य अपने महल से निकले। खेरपति मंदिर से कुछ ही दूरी पर उन्होंने रुककर विश्राम किया। इसी दौरान उनकी आंख लग गई। उनके सपने में शेषनाग ने दर्शन दिए और कहा कि यहां पर शिवलिंग की स्थापना की जाए, क्योंकि वे यहां पर वास करना चाहते हैं। अचानक शुकराचार्य की नींद टूट गई। हालांकि, उन्होंने शिवलिंग की स्थापना नहीं की। कहा जाता है कि उस समय सावन का पहला महीना आया और इसी महीने में रातोंरात शेषनाग खुद ही स्थापित हो गए।
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